पिछले महीने 'महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’ (मेटा) के तहत दिल्ली में हुए नाटकों के प्रदर्शन में ‘एवलांच (हिमस्खलन)’ नाटक अपनी प्रस्तुति, विषय-वस्तु और अदाकारी को लेकर चर्चा में रहा. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के स्नातक गंधर्व दीवान के निर्देशन में हिंदुस्तानी भाषा में हुए इस नाटक का ‘स्टेज डिजाइन’ अपने-आप में अनूठा था.
एक पत्रकार के नोट्स
Sunday, April 07, 2024
पहरेदारी में जीवन: एवलांच
पिछले महीने 'महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’ (मेटा) के तहत दिल्ली में हुए नाटकों के प्रदर्शन में ‘एवलांच (हिमस्खलन)’ नाटक अपनी प्रस्तुति, विषय-वस्तु और अदाकारी को लेकर चर्चा में रहा. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के स्नातक गंधर्व दीवान के निर्देशन में हिंदुस्तानी भाषा में हुए इस नाटक का ‘स्टेज डिजाइन’ अपने-आप में अनूठा था.
Tuesday, March 26, 2024
शरीर और बुद्धि के द्वंद्व: फिर से हयवदन
चर्चित नाटककार गिरीश कर्नाड का लिखा ‘'हयवदन' नाटक आधुनिक रंगमंच में क्लासिक का दर्जा रखता है. मूल कन्नड़ भाषा में लिखे इस नाटक का पिछले पचास सालों में विभिन्न भाषाओं में अनेक बार मंचन हुआ है. हिंदुस्तानी में (अनुवाद बी वी कारंत) इस नाटक का मंचन ‘महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’ (मेटा) के तहत पिछले दिनों दिल्ली में हुआ और बेस्ट ऑनसंबल (best ensemble) और सहायक अदाकार (स्त्री) की भूमिका के लिए पल्लवी जाधव को पुरस्कृत भी किया गया. सभागार जिस तरह भरा हुआ था, कहा जा सकता है कि नयी पीढ़ी की रुचि इस नाटक में बनी हुई है.
आखिर इस नाटक में ऐसा क्या है जो देश-काल से परे जाकर लोगों को आकृष्ट करता है? गिरीश कर्नाड ने कथासरित्सागर और टॉमस मान के लिखे ‘द ट्रांसपोज्ड हेडस’ से उन्होंने प्रेरणा ली थी और अपने मित्र, प्रख्यात रंगकर्मी बी वी कारंत को कहानी इस तरह सुनाई थी: ‘यदि दो लोगों के सिर की अदला-बदली हो जाए, ऐसे में कौन सा रूप किसका होगा? क्या एक पुरुष की पहचान उसके सिर से होगी या शरीर से?’ अपनी संस्मरणात्मक किताब ‘दिस लाइफ एट प्ले’ में कर्नाड ने लिखा है कि इस कथा पर वे एक फिल्म बनाना चाहते थे, पर कारंत ने नाटक लिखने का सुझाव दिया. ‘हयवदन’ (घोड़े की सिर वाला आदमी) नाम भी उन्हीं का दिया है.
इस नाटक की विषय-वस्तु के लिए वे भारतीय परंपरा, लोक, मिथक में व्याप्त कथा की ओर गए. उन्होंने लिखा है कि इस नाटक में गीत-संगीत, नृत्य का जिस तरह इस्तेमाल किया, इससे पहले आधुनिक नाटकों में नहीं होता था. बाद में ‘घासी राम कोतवाल’ (विजय तेंदुलकर) और ‘चरण दास चोर’ (हबीब तनवीर) जैसे नाटकों में कुशलता से इसका प्रयोग हुआ और काफी सफल रहा. वर्ष 1971 में लिखे इस नाटक को देखते हुए मुझे कर्नाड के समकालीन हिंदी के नाटककार और लेखक मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे (1969)’ की याद आ रही थी. क्या जीवन में, संबंधों में पूर्णता की तलाश व्यर्थ है? यह नाटक देवदत्त, कपिल और पद्मिनी के प्रेम त्रिकोण के इर्द-गिर्द है. पद्मिनी देवदत्त और कपिल दोनों की ओर आकर्षित है. देवदत्त की मेधा का आकर्षण और कपिल का शरीर-सौष्ठव उसे अपनी ओर खींचता है, पर जब दोनों के सिर की अदला-बदली हो जाती है, पद्मिनी की दुविधा दर्शकों के सामने मुखर हो उठता है.
यह नाटक शरीर और बुद्धि के द्वंद्व को सामने लाता है. प्रेम, इच्छा, ईष्या जैसे शाश्वत भाव लोगों को आकर्षित करते रहे हैं. मुख्य कथा के साथ-साथ ही एक उप-कथा घोड़े के सिर वाले आदमी (हयवदन) की भी साथ चलती है, जिसमें हास्य का भी पुट है.
जहाँ ‘आधे-अधूरे’ नाटक सामाजिक यथार्थ के ताने-बाने से लिखा गया है, वही ‘हयवदन’ लोक (फोक), मिथक और तंत्र-मंत्र से सामग्री उठाता है. सूत्रधार, मुखौटे, गुड्डे-
इस नाटक का निर्देशन चर्चित रंगकर्मी नीलम मानसिंह चौधरी के कुशल हाथों में था और लगभग सभी पात्र राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से प्रशिक्षित थे. जाहिर है, मंचन कसा हुआ और मनोरंजक था. मूल नाटक में पद्मिनी सती हो जाती है, पर निर्देशक ने समकालीन भाव-बोध के अनुरूप इसे एक स्त्री के अस्तित्व और पहचान से जोड़ दिया है, जो आखिर में अपना रास्ता खुद चुनती है.
समकालीन रंगमंच में 'प्रॉप्स' और तकनीक का बेवजह इस्तेमाल बढ़ा है. कई निर्देशक मंच पर प्रयोग के माध्यम से नवीनता लाने की कोशिश करते हैं. इस नाटक में भी मंचन के दौरान एक ट्रक मौजूद रहा. ट्रक की छत पर संगीतकारों की टोली विराजमान थी. इस चलायमान ट्रक का औचित्य समझ में नहीं आया. क्या इसके बिना नाटक की परिकल्पना संभव नहीं है? प्रसंगवश, मेटा के आयोजन में ही हिंदुस्तानी में किए गए एक अन्य नाटक ‘एवलांच (निर्देशक, गंधर्व दीवान)’, जो तुर्की के नाटककार टूजनेर जुजूनलू की इसी नाम से लिखे नाटक पर आधारित था, को कमानी सभागार के मंच पर एक बंद स्पेस में किया गया, जहाँ पर तापमान बेहद कम रखा गया. साथ ही ऊंची पहाड़ियों पर तेज बहने वाली हवा (आवाज) के माध्यम से देशकाल (पहाड़ी पर बसे गाँव) का बोध करवाया गया था. दर्शकों को ठंड से बचने के लिए आयोजकों ने कंबल भी मुहैया करवाया था!
रंगकर्म में प्रयोग जरूरी है. 'हयवदन' की प्रासंगिकता से भी इंकार नहीं, पर समकालीन यथार्थ को संपूर्णता में व्यक्त करने के लिए हिंदी में नए नाटक लिखने होंगे, जिसका सर्वथा अभाव दिखता है.
Sunday, March 24, 2024
इतिहास में दारा शुकोह
वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय की किताब ‘दारा शुकोह: संगम-संस्कृति का साधक’ का लंबे समय से इंतजार था, जो उनके गुजरने के बाद हाल ही में प्रकाशित हुई है. जीवन के आखिरी वर्षों में मुगल शाहजादा दारा शुकोह (शिकोह) पर वे शोध कर रहे थे. उनके लिए यह एक महत्वाकांक्षी परियोजना थी. जब हम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में उनके छात्र थे, तब भी वे इसकी चर्चा करते थे.
मुगल सम्राट शाहजहां का ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी दारा शुकोह (1615-1659) का बहुआयामी व्यक्तित्व इतिहासकारों, साहित्यकारों और भारतीय संस्कृति के अध्येताओं के लिए कई सवाल लेकर आता रहा है जिससे वे अपने लेखन में जूझते रहे हैं.
दारा ने मुसलमानों को हिंदू धर्म और संस्कृति से परिचित कराने के लिए उपनिषदों और श्रीमद्भागवत गीता का फारसी में अनुवाद किया था. हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों के बीच मेल-जोल, संवाद और एकता को लेकर वह काफी तत्पर था. यही कारण है कि एक तरफ उसने ‘मज्म ‘उल बहरैन’ (फारसी) में और दूसरी तरफ संस्कृत में ‘समुद्र संगम’ किताबें लिखी. जाहिर है उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. राजसत्ता की लड़ाई में शायर और सूफी के इस साधक की औरंगजेब ने हत्या करवा दी, लेकिन उसके विचारों और दर्शन की अनुगूंज सुनाई देती रही.
यह किताब आलोचना की नहीं है. मैनेजर पाण्डेय ने इसे जीवनी और इतिहास का मेल कहा है. वे लिखते हैं, “दारा की औरंगजेब ने हत्या करवाई तब लोगों ने मान लिया था कि अब संगम-संस्कृति का अंत हो गया, उदारता हार गई और कट्टरता जीत गई. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि संगम-संस्कृति की पंरपरा भारत में दारा के बहुत पहले से मौजूद थी और बहुत बाद तक फलती-फूलती रही जो आज भी मौजूद है.” इस किताब में वे दारा के लेखन के माध्यम से संगम-संस्कृति के विचारों की विवेचना करते हैं. हिंदुस्तान में मौजूद इस परंपरा पर पर्याप्त रोशनी डालते हैं. साथ ही आज के समय में उसकी जरूरत को रेखांकित करते हैं.
यह किताब ‘शहीद शाहजादा’, ‘संगम-संस्कृति का साधक’, ‘दारा शुकोह का लेखन’, ‘संवादधर्मी व्यक्ति और विचारक’ और ‘हिंदी साहित्य में दारा शुकोह’ अध्याय में विभक्त है. पाण्डेय जी के लेखन में सामाजिकता और स्वतंत्रता पर जोर रहा है. स्वतंत्रता और एकता का जहाँ अभाव होता है वहीं कट्टरता पनपती है. अमीर खुसरो, कबीर, रहीम जैसे शायरों और भक्ति आंदोलन के कवियों के लेखन में हिंदू-मुस्लिम एकता की बात प्रमुखता से है. दारा का लेखन और विचार इससे प्रभावित था.
किताब में लेखक ने विलियम इरविन और इतिहासकार यदुनाथ सरकार के बीच हुए पत्राचार को उद्धृत करते हुए लिखा है कि ‘हारनेवाला इतिहास में बहुत कम न्याय पाता है.’ दारा शुकोह भारतीय इतिहास में ‘ट्रेजडी’ के एक नायक के रूप में सामने आता है. सत्ता के इशारे पर हुए इतिहास लेखन में दारा की निंदा हुई है, पर स्वतंत्रचेता लेखकों ने भारतीय इतिहास और संस्कृति में दारा के विशिष्ट स्थान और योगदान को रेखांकित किया है. यह किताब उसी कड़ी में है. समकालीन समय और समाज में जब धर्म के नाम पर विभेदकारी राजनीति का बोलबाला है, दारा के विचारों की प्रासंगिकता बढ़ गई है.
Sunday, March 10, 2024
कठपुतली कला में रचा संसार
पिछले दिनों दिल्ली और चंडीगढ़ में इशारा अंतरराष्ट्रीय कठपुतली नाट्य समारोह का आयोजन किया गया. नाटक के अंतिम दिन दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर में दादी पुदुमजी अपनी नई प्रस्तुति ‘बी योरसेल्फ’ लेकर मौजूद थे. क्रिश्चियन एंडरसन की बहुचर्चित कृति ‘द अग्ली डकलिंग’ पर आधारित यह कठपुतली नाटक इस अर्थ में विशिष्ट था कि निर्देशक ने पशु-पक्षियों (कठपुतलियों) को देश के विभिन्न हिस्सों के वस्त्रों मसलन इकत कलमकारी, सिल्क आदि से सजाया था. बुनकरों के विभिन्न रंगों में भारतीय संस्कृति की विविधता मंच पर दिखाई पड़ रही थी. युवा कलाकारों ने अपने अभिनय से इस नाटक को रोचक और मनोरंजक बना दिया.
Remembering Kumar Shahani, India’s Foremost Avant-Garde Film Director
For the people of my generation, who grew up in the 1990s, Indian new-wave cinema was a kind of esoteric art and idea. During the early ‘90s in Darbhanga, I still remember seeing a poster of the movie ‘Salim Langde Pe Mat Ro’ and wondering what kind of film it would be.
Monday, February 26, 2024
कुमार शहानी: एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार का जाना
अवांगार्द फिल्मकार और कला विचारक के रूप में कुमार शहानी (1940-2024) की दुनिया भर में एक विशिष्ट पहचान थी. वे हिंदी समांतर सिनेमा के पुरोधा थे. उनकी बहुचर्चित फिल्म माया दर्पण (1972) के पचास साल पूरे होने पर जब मैंने उनसे बातचीत किया था तब भी वे फिल्म बनाने को लेकर उत्सुक थे. उन्होंने मुझे कहा था कि फिल्म के पचास वर्ष पूरे होने पर दुनिया भर में उनकी फिल्मों के प्रति रुचि दिखाई जा रही है और भविष्य में फिल्म निर्माण को लेकर हॉलीवुड से भी पूछताछ किया जा रहा है.
Sunday, February 25, 2024
Wednesday, February 21, 2024
मीडिया का लोकतंत्र: समीक्षा
लोकसभा चुनाव के महज कुछ हफ्ते शेष बचे हैं. वर्तमान शासन के दस साल बाद भी विपक्षी पार्टियों के लिए चुनावी रणनीति का कोई ऐसा सिरा दिखाई नहीं दे रहा जिससे कहा जा सके कि मुकाबला दिलचस्प होगा. क्या यह चुनाव बिना किसी चुनौती के संपन्न होगा? विपक्षी पार्टी पर भारतीय जनता पार्टी ने मनोवैज्ञानिक बढ़त बना ली है. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री कहते फिर रहे हैं कि ‘आएगा तो मोदी ही!’
प्रधानमंत्री की छवि एक ब्रांड (मोदी है तो मुमकिन है, मोदी की गारंटी आदि) के रूप में इन वर्षों में पुख्ता हुई है. प्रधानमंत्री के इस ‘कल्ट’ को कारोबारी मीडिया भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता. जो प्रधानमंत्री की राजनीति और विचारधारा के आलोचक हैं, वे भी उनकी लोकप्रियता से इंकार नहीं करते. उनकी लोकप्रियता का बड़ा हिस्सा उदारीकरण के साथ हिंदुत्व की जो बयार बही उससे जुड़ता है. भाषाई मीडिया, जिसका अप्रत्याशित विकास इन्हीं दशकों में हुआ है, समाज में आए बदलाव को आत्मसात करता हुआ आगे बढ़ा है. इसी सिलसिले में एक नेटवर्क का विस्तार भी हुआ है, दूर दराज के गाँव-कस्बों तक मीडिया (मुख्यधारा और सोशल) की पहुँच बढ़ी है. विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी मीडिया के माध्यम से मोदी की लोकलुभावन अपील को अपने तयी देखते-परखते हैं, चुनाव में वोट करते हैं.
चूँकि मीडिया एक पूंजीवादी उपक्रम है (प्रिंट पूंजीवाद), इसलिए मुनाफे की संस्कृति से ही इसका संचालन होता है, लोकहित हाशिए पर ही रहते आए हैं. वैसे प्रकाशन व्यवसाय भी कोई अपवाद नहीं है, यहाँ भी लेखकों की ब्रांडिंग पर जोर रहता है. उनकी छवि भुनाने की कोशिश होती है. हाल के वर्षों में हिंदी लोकवृत्त में यह प्रवृत्ति बढ़ी है.
बहरहाल, राम मंदिर निर्माण के बाद ‘हिंदुत्व’ और ‘विकास’ की जुगलबंदी का शोर और बढ़ा है. इस शोर के बीच रोजगार, बढ़ती असमानता, अल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा की भावना और संस्थानों के लगातार कमजोर होने की चर्चा सुनाई नहीं देती. स्वतंत्र मीडिया और स्वतंत्रचेता मीडियाकर्मियों पर जो दबिश बढ़ी है, उसके बारे में खुल कर बोलने में आम नागरिकों में हिचक है. सोशल मीडिया में भी एक तरह का ‘सेल्फ-सेंसरशिप’ है. ऐसे में, मुख्यधारा का मीडिया सरकार के एजेंडे को ही अपना एजेंडा मान कर आगे बढ़ रहा है. हाल के दिनों में अडानी समूह के मीडिया क्षेत्र में बढ़त को हम उनके कारोबारी हित के नजरिए से देख-परख सकते हैं.
वैसे दिल्ली में आने से पहले ही मोदी की ब्रांडिंग शुरू हो गई थी, जिसे मीडिया का भरपूर सहयोग मिला था. वर्ष 2012 में चर्चित अमेरिकी पत्रिका टाइम के कवर पृष्ठ पर नरेंद्र मोदी की तस्वीर छपी थी. साथ ही इंडिया टुडे, कारवां और आउटलुक पत्रिकाओं के कवर पर भी नरेंद्र मोदी छाए हुए रहे. इंडिया टुडे में जहाँ एक ओपिनियन पोल के हवाले से प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी को लोगों की पहली पसंद बताया, वहीं कारवां और आउटलुक पत्रिका ने मोदी की छवि को लेकर कुछ तल्ख सवाल किए थे. मोदी को लेकर मीडिया के अंदर दो ध्रुव थे. बाद के वर्षों में यह दूरी और बढ़ती गई. हिंदी टेलीविजन मीडिया के हवाले से बात करें तो रवीश कुमार और सुधीर चौधरी इस ध्रुव के ओर छोर कहे जा सकते हैं.
उदारीकरण के बाद भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र बदला. कॉरपोरेट, मीडिया और राजनीतिक दलों में हर तरफ जोर प्रबंधन पर बढ़ा. मीडिया में जहाँ ब्रांड मैनेजर की अहमियत संपादकों से ज्यादा बढ़ी वहीं, राजसत्ता में मीडिया मैनेजरों की घुसपैठ किसी भी सक्षम नौकरशाहों से कम नहीं है. समयांतर पत्रिका (मई, 2012) के लिए ‘मोदी और मीडिया’ लेख में मैंने लिखा था:
“कोई भी पाठक यदि सरसरी तौर पर भी टाइम के लेख को पढ़े तो उसे समझने में यह देर नहीं लगेगी कि यह एक महज पीआर (जनसंपर्क) का काम है जिसे नरेंद्र मोदी के मीडिया मैनेजरों ने बखूबी अंजाम दिया है.”
इन वर्षों मीडिया के चरित्र में जो बदलाव हुए हैं, नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग में जो इसकी भूमिका रही है, सोशल मीडिया का जो उभार हुआ है उसका एक लेखा-जोखा पिछले दिनों लेखक विनीत कुमार की प्रकाशित किताब- ‘मीडिया का लोकतंत्र’ में दिखाई देता है.
जैसा कि शीर्षक और अध्यायों से स्पष्ट है इस किताब में ‘मीडिया’ और ‘लोकतंत्र’ बीज शब्द हैं. किसी भी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी को केंद्रीयता प्राप्त है. इसकी रक्षा का भार नागरिक समाज, मीडिया, न्यायालय और राजनीतिक दलों पर है. मीडिया चूँकि लोकतंत्र में आम जनता की आँख और कान की तरह होते हैं, जाहिर है उससे अपेक्षा रहती है कि वह ‘सबकी खबर ले. सबको खबर दे’. सवाल है कि क्या मोदी के शासन काल में मीडिया जनता के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता के सामने सच कहने में सफल रही? इसका जवाब नकारात्मक ही है. मीडिया की आवाज दबी रही. स्वर हकलाने का ही रहा. आज जोर सेल्फी पत्रकारिता पर है. प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी, संपर्क साध कर पत्रकार-संपादक खुद को धन्य महसूस करते फिरते हैं. कारोबारी मीडिया का जोर सत्ता के साथ सांठगांठ करने पर बढ़ा है. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अखबार और टेलीविजन चैनलों के ‘स्पेशल इवेंट’ हैं, जहाँ मंच पर मालिक और संपादक ‘सत्ता’ पर काबिज लोगों के साथ नज़र आते हैं.
यह किताब ‘मीडिया का लोकतंत्र: बरास्ते पीआर एजेंसी’, ‘मीडिया नैरेटिव: फ़ेक बनाम फैक्ट’, ‘मीडिया राष्ट्रवाद: अलविदा लोकतंत्र!’ और ‘न्यू मीडिया: डेटा पैक का लोकतंत्र’ जैसे अध्यायों में विभक्त है. इस किताब की भूमिका में विनीत लिखते हैं:
“साल 2014 के बाद मीडिया का चरित्र पूरी तरह बदल गया है और अब तक सत्ता से विवेकपूर्ण असहमति को पत्रकारिता माना जाता रहा है, यह क्रम उलटकर सत्ता के साथ होना ही पत्रकारिता है, ऐसा कहने से यह किताब रोकती है.” हालांकि इस किताब में जो विवरण, उदाहरण, संदर्भ और ब्यौरे हैं, वह लोकवृत्त में पहले से मौजूद हैं. मीडिया के रवैये को लेकर मीडिया के अंदर ही टीका-टिप्पणी और किताबें लिखी जाती रही है. लेखक इस बात को स्वीकार करते हुए लिखते हैं:
“आप जब इसके पन्ने-दर-पन्ने पलटते हुए संदर्भों से गुजरेंगे तो संभव है कि लगेगा इसमें नया क्या, यह तो हमें पहले से पता है...”. लेखक की पक्षधरता स्पष्ट है. हिंदुत्ववादी राजनीति और सत्ता के विरोध में वह खड़ा है. लेकिन देश की विशाल आबादी (खास कर उत्तर और पश्चिम भारत) तक मोदी की पहुँच के कारणों पर इसमें विचार नहीं किया गया है, न हीं मीडिया के उपभोक्ताओं, नागरिकों की सोच को ही शामिल किया गया है. इस लिहाज से यह एक किताब भी एक ‘इको चैंबर’ की तरह है, जहाँ हम (लिबरल) सिर्फ अपनी आवाज ही सुनते हैं.
मीडिया के पाठकों, दर्शकों की पसंद को लेकर अकादमिक दुनिया में शोध की पहल नहीं दिखती. विनीत मीडिया शोध और अध्ययन से जुड़े रहे हैं, उनसे अपेक्षा थी कि वे दर्शकों की पसंद, इच्छा को लेकर इस किताब में चर्चा करते ताकि मोदी की लोकप्रियता के कारणों की एक झलक हमें मिलती. महज उदाहरणों, किताब के संदर्भों के आधार पर मीडिया के बदलते चरित्र-- जहां जनसंपर्क (पीआर) की भूमिका बढ़ती चली गई है-- की मुकम्मल तस्वीर सामने नहीं आती. हां, किताब में वर्ष 2013 में उत्तरकाशी-केदारनाथ में आई तबाही और मोदी को लेकर ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में जो झूठी खबर छपी- ‘मोदी इन रैम्बो एक्ट, सेव्स 15000’ , को एक केस स्टडी के रूप में विस्तार से विश्लेषण किया गया है. विनीत बताते हैं कि किस तरह एक ही मीडिया संस्थान के दो उपक्रम (प्लेटफॉर्म) अलग-अलग तरीके से खबरों को प्रस्तुत करते हैं और जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे को काटते भी चलते हैं! हालांकि यहाँ पर यह नोट करना जरूरी है कि टाइम्स ग्रुप के लिए इस तरह की खबर सिर्फ पीआर का मसला नहीं रहा है.
बीस साल पहले जब मैं टाइम्स ग्रुप के अखबार ‘नवभारत टाइम्स’ पर शोध कर रहा था, इस तरह की खबर ‘पेड न्यूज’ की शक्ल में आने लगी थी. वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में यह खुल कर सामने आ गया था. चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियों से मोटी रकम लेकर ‘पैकेज’ के तहत टाइम्स ग्रुप ने मीडिया नेट कंपनी (2003) और प्राइवेट ट्रीटीज (2005) की शुरुआत कर दी थी. इसका विस्तार से उल्लेख मैंने अपनी किताब ‘हिंदी में समाचार (2013)’ और शोध आलेख ‘राइटिंग खुश खबर: हिंदी न्यूज़ पेपर्स इन नियो लिबरल ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी इंडिया’ (2021) में किया है. आश्चर्य है कि विनीत अपने लेख में कहीं भी इस पहलू का जिक्र नहीं करते! जबकी इस अध्याय में विनीत विज्ञापन गुरु (‘अबकी बार, मोदी सरकार’ वाले) पीयूष पांडे की आत्मकथात्मक किताब ‘पांडेमोनियम: पीयूष पांडे ऑन एडवरटाइजिंग (2015)’ को लेकर अनावश्यक रूप से करीब दस पेज खर्च करते हैं. इसी तरह कई ऐसी किताबों से उदाहरण हैं जिसे संक्षेप में दिया जा सकता था. वैसे यह पूरी किताब ‘ही सेड/शी सेड’ (किसने क्या कहा) की शैली में ही लिखी गई है, जहाँ पर अद्यतन किताबों के संदर्भ और विवरण तो मिलते हैं पर लेखकीय विश्लेषण का अभाव दिखता है. मीडिया की रिपोर्टिंग में ऐसी छूट की गुंजाइश तो है, पर जब आप शोध/आलोचना कर रहे हैं तो लेखक से अपेक्षा रहती है कि उसकी दृष्टि और तैयारी से पाठक रू-ब-रू होगा. ऐसे में पूरी किताब में लेखक कहीं पीछे छूट जाता है और ‘अन्य' हावी हो जाते हैं. पाठकों के लिए यह उलझन पैदा करता है. पठनीयता भी प्रभावित होती है. किताब में जिन लेखकों को उद्धृत किया गया, अधिकांश के साथ कोई खंडन-मंडन नहीं है, न ही लेखक की तरफ से सवाल हीं उछाला गया है. एक किताब सारे सवालों का जवाब भले न दे, पाठकों के मन में बीजारोपण तो कर ही सकती है!
इस शताब्दी के दूसरे दशक में जहाँ इंटरनेट के मार्फत आभासी दुनिया में एक अंतरराष्ट्रीय लोकवृत्त के निर्माण की संभावना बनी, वहीं सूचनाओं के आल-जाल में तथ्य और सत्य के बीच की रेखा धुंधली हो गई. यथार्थ और आभासी के बीच फेक न्यूज का ऐसा तंत्र खड़ा हुआ जिसे सत्ता का सहयोग हासिल है. यह अमेरिका से लेकर भारत जैसे लोकतंत्र के लिए चुनौती का विषय बना है. पिछले दिनों अभिनेत्री पूनम पांडेय की मौत की खबर फेक न्यूज बन कर आई जिसे बीबीसी जैसी संस्थाओं ने भी बिना किसी जांच-परख के स्वीकार कर लिया था.
विनीत अपने लेख ‘मीडिया नैरेटिव: फेक बनाम फैक्ट’ में इस मुद्दे से विमर्श रचते हैं. कोरोना के दौरान जिस तरह से मुस्लिम समुदाय के खिलाफ फेक न्यूज टीवी चैनलों पर फैलाया गया विनीत उसे विश्लेषण की जद में लेते हैं. वे ‘आजतक’ के कार्यक्रम में दिखाए ‘कोई झुठला नहीं पाएगा राम मंदिर का इतिहास, जाने कितना अहम है ‘टाइम कैप्सूल’ (राम मंदिर के नीचे रखा जाएगा टाइम कैप्सूल! देखें क्या है तैयारी) कार्यक्रम की पड़ताल करते हैं. विनीत लिखते हैं:
“आजतक की दर्जनों फुटेज देखने के बाद भी एक भी ऐसी तस्वीर नहीं मिली जिससे कि राम जन्मभूमि परिसर में टाइम कैप्सूल डाले जाने संबंधी तैयारी की पुष्टि हो सके. यह स्थिति जी न्यूज, रिपब्लिक भारत, टाइम्स नाउ, सभी चैनलों के साथ रही.”
हालांकि इस अध्याय में ‘भाषाई वर्चस्व के बीच हिंग्लिश की शरणस्थली’ की चर्चा करना विषय-वस्तु के साथ मेल नहीं खाता है. उसके लिए एक अलग स्वतंत्र अध्याय की गुंजाइश थी. खुद लेखक ने लिखा है कि वे इस विषय पर अन्यत्र लिख चुके हैं.
उल्लेखनीय है कि राममंदिर के उद्घाटन समारोह में जैसा कि उम्मीद थी, टेलीविजन चैनलों में ‘राम राज्य’ का बोलबाला रहा. उससे पहले ही इंडिया टुडे टीवी चैनल पर ‘राम आएँगे’, टीवी 9 पर ‘मंदिर वहीं बनाएँगे’ और एनडीटीवी पर ‘राम रिटर्न्स’ जैसे कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे. ऐसा नहीं है कि पहली बार टीवी ने भावनात्मक मुद्दे को लेकर बिना किसी आलोचनात्मक विवेक के कार्यक्रम, बहस आदि किए हो. मोदी के शासनकाल में टीवी में राष्ट्रवाद के ऊपर बहस-मुबाहिसा का जोर बढ़ा है, जहाँ पर समावेशी, सामासिक संस्कृति की बात नहीं होती. असल में, हिंदी समाचार चैनल अपने शुरुआत से ही विचार-विमर्श की जगह सनसनी को अपने केंद्र में रखा. आज उग्र राष्ट्रवाद हिंदुत्व का आवरण ओढ़ कर हमारे सामने है. जैसा कि कुंवर नारायण ने अपनी कविता (अयोध्या, 1992) में लिखा है:
हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर-लाखों हाथ हैं.
यह लाखों सर और लाखों हाथ समकालीन भारतीय मीडिया के हैं. राष्ट्रीय मीडिया सत्ता के साथ है, जिससे नागरिक समाज और विपक्ष को लड़ना है. पर कैसे? क्या लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया विपक्ष के लिए एक कारगर हथियार साबित होगा? इस किताब का आखिरी अध्याय ‘न्यू मीडिया: डेटा पैक का लोकतंत्र’ खबरों और विभिन्न लेखकों की किताबों (राहुल रौशन, अंकित लाल, स्वाति चतुर्वेदी, रोहित चोपड़ा, सिरिल और परंजय गुहा ठाकुरता आदि) के हवाले से इन्हीं मुद्दों को अपने घेरे में लेता है.
आखिर में, लेखक ने किताब में नोट किया है कि "कारोबारी मीडिया के लिए लोकतंत्र नागरिकों की हिस्सेदारी से चलनेवाली एक सतत प्रक्रिया न होकर, एक प्रबंधन है जिसे कि वो अपने ऑक्सीजन प्रदाता के अनुरूप फेरबदल कर सकते हैं." पर क्या हमारा मीडिया हमारे लोकतंत्र से अलग है? ‘मीडिया का लोकतंत्र’ में मीडिया की आलोचना तो है पर इस बुनियादी सवाल पर चुप्पी है. जब संकट लोकतंत्र पर हो तब समकालीन मीडिया की कोई भी आलोचना उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के बाद समाज, राजनीति और पूंजीवाद (खुफिया पूंजीवाद) में आए बदलावों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है, जिसका इस किताब में नितांत अभाव है.